विनमृता का पाठ =====
-- काशी में एक संत रहते थे उनके आश्रम में कई शिष्य अध्ययन करते थे, कुछ शिष्यों की शिक्षा पूरी होने पर संत ने उन्हें बुलाकर कहा "कि अब तुम लोगों को संसार के कठोर नियमों का पालन करते हुए भी विनमृता से समाज की सेवा करनी होगी,एक शिष्य ने कहा गुरुदेव हर समय विनम्रता से काम नहीं चलता है"संत समझ गए कि अभी इसमें अभिमान का अंश मौजूद है ,थोड़ी देर मौन रहने के बाद उन्होंने कहा कि जरा मेरे मुँह के अंदर ध्यान से देखकर बताओ कि अब कितने दाँत शेष रह गए हैं,?बारी -बारी से सभी शिष्यों ने देखा और बोले कि आप के तो सभी दांत टूट गए हैं | संत ने फिर कहा "और जीभ है की नहीं ?शिष्यों ने समझा गुरु जी मजाक कर रहे हैं | बोले उसे देखने कि जरूरत ही नहीं है जीभ अंत तक साथ रहती है | संत ने कहा यह अजीब बात है कि जीभ जन्म से मृत्यु तक साथ रहती है जबकि दाँत बाद में आते है और पहले ही साथ छोड़ देते हैं जबकि उन्हें बाद में जाना चाहिए ऐसा क्यों होता है ?एक शिष्य बोलै यह तो सृस्टि का नियम ही है संत ने कहा नहीं वत्स इसका जबाब इतना सरल नहीं है जितना तुम सोच रहे हो जीभ इसलिए नहीं टूटती कि उसमे लोच है| वह विनम्र होकर अंदर पड़ी रहती है उसमे किसी तरह का अहंकार नहीं है उसमे विनम्रता से सब कुछ सहने की शक्ति है इसलिए वः हमेशा साथ देती है जबकि दन्त कठोर होते हैं उन्हें अपनी कठोरता का अभिमान रहता है वे जानते हैं कि उनके कारण ही मनुष्य की शोभा बढ़ती है यही अंहकार और कठोरता उनके क्षरण का कारण बनती है इसलिए तुम समाज की सेवा जीभ की तरह विनम्र होकर होकर करनी होगी
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