समीक्षा
भाषावाद : एक निर्रथक अवधारणा
भाषावाद न तो कोई एक सम्पूर्ण विचार है ,और ना ही कोई स्वस्थ सामाजिक अवधारणा ,चूँकि वादो का नजदीकी रिश्ता विवादों से भी मन जाता है। अतः दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं की भाषावाद की वकालत करने वाले व्यक्तियों या समूहों की रूचि एक निरर्थक विवाद करने में ज्यादा दिखाई देती है ना की भाषा के प्रचार-प्रसार में ,महाराष्ट्र -कर्णाटक का सीमा विवाद अभी भी सुलझ नहीं पाया है इसके पीछे मुख्य कारन भाषा संबन्धी विवाद ही है। महाराष्ट्र के साथ-साथ देश के कई अन्य भागों में भी अक्सर भाषाई विवाद अपना सिर उठाने लगता है ।
भाषा के ऊपर ऐसे ही विवादों की चर्चा करने के लिए फरवरी, 2011 महाराष्ट्र के सीमांत नगर उदगीर के शिवाजी महाविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा विश्व विद्यालय अनुदान आयोग नै दिल्ली के सहयोग से एक संगोष्टी का आयोजन किया गया था। इस संगोष्टी में महाराष्ट्र ,कर्णाटक और मध्यप्रदेश के सीमा वर्ती क्षेत्रों के विभिन्न विश्व विद्यालयों से जुड़े हिंदी प्रध्यापकों और शोधार्थियों के साथ-साथ कुछ हिंदी लें ख्कों को भी भाषावाद के विभिन्न पक्षों पर अपने प्रपत्र पढ़ने और चर्चा करने हेतु आमंत्रित किया गया था।
संगोष्ठी के तीन वर्ष वाद इसके संयोजन डाक्टर विश्वनाथ किसन भालेराव के संपादन में उक्त अवसर पर पढ़े गए चुनिंदा आलेखों को पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक में कुल 43 आलेख हैं। विशेष बात ये है की दो-तीन आलेखों को छोड़कर सभी गैर हिंदी भाषी लेखकों द्वारा लिखे गए है जो की उनके भाषा एवं भाषा विवाद सम्बन्धी निजी अनुभवों पर आधारित हैं।
पुस्तक का पहला आलेख "भाषावाद और हिंदी " शीर्षक से श्री कौशल पाण्डेय जी का है ,जिन्हे हिंदी भाषी और मराठी भाषी दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से कार्य करने का अनुभव रहा है। इस आलेख द्वारा हिंदी को एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में व्याख्यापित किये जाने का प्रयास किया गया है। यह आलेख संगोष्ठी में दिए गए बीज भाषा का संक्षिप्त एवं सम्पादित रूप है। संपादक डाक्टर विश्वनाथ भालेराव ने अपनी भूमिका में भाषा विवाद की मूल अव् धारणा की तलाश कवि धूमिल की इन काव्य पंक्तियों में की है।
चंद -चालक लोगो ने ,
जिनकी नरभक्षी जीभ ने
पसीने का स्वाद चख लिया है
बहस के लिए भूख की जगह
भाषा को रख दिया है।
उन्हें मालूम है कि भूख से भागा हुआ
आदमी भाषा की ओर जायेगा ।
इस पुस्तक के सभी आलेख भाषावाद का खण्डन करते हुए इस बात को रेखांकित करते है कि हिन्दी के माध्यम से ही देश की अखंडता और एकता को बनाये रखा जा सकता है। अधिकांश आलेखों की भाषा पर मराठी का स्थानीय भाषाई प्रभाव साफ-साफ देखा जा सकता है ,जिसे दिखना भी चाहिए ,क्योकि भाषा को अगर स्थानीय दबाबों और प्रभावों से अगर मुक्त कर दिया तो वह क्रतिम भाषा लगने लगती है। शुद्ध और परिष्कृत हिंदी की अपेक्षा रखने वाले हिंदी पाठको को हो सकता है यह पुस्तक आकर्षित न करे पर भाषा को बहता नीर मानने वाले तथा भाषा वाद की क्रतिम समस्याओं से असहमत और उससे निजात चाहने वाले हिंदी प्रेमियों और शोधार्थियों को यह पुस्तक अवश्य रचकर लगेगी।
० पुस्तक --भाषावाद (आलेख )
० सम्पादन --डा ० विस्वनाथ किसान भालेराव
० प्रकाशक --शैलजा प्रकाशन , कानपुर
० मूल्य -----375 रुपये।