प्रेम करना परम संतोष दायक है। किन्तु प्रेम करना आसान नहीं है. इसमें एक दूसरे के सुख ,दुःख और श्रम का भी भागीदार बनना पड़ता है।दुःख से हृदय निर्मल होता है और सुख से -दुःख की क्षति पूर्ति होती है। श्रम से मनुषत्व का विकास होता है। इसलिये प्रेम के लिये ये तीनों ही आवश्यक हैं। इसके लिये पहले करुणा और देख - भाल का भाव जगाना पड़ता है। फिर आदान - प्रदान शुरु होता है। एक साथ रहते हुये हमे सुख. दुख. व श्रम को एक साथ लेकर चलना होता है. एक की भी डगमगाहट दूसरे को कमजोर बना देती है। हम इसमें एक-दूसरे के इतने आदी हो जाते हैं कि फिर कोई कार्य अकेले नहीं होता। असंभव सा लगने लगता है।
शुरुआत में प्रेम करना मेहनत का काम है। लेकिन वही मेहनत बाद में स्वचालित क्रिया हो जाती है। धीरे-धीरे संबन्धों में सुधार होने लगता है. फिर निखार आने लगता है। तत्पश्चात प्रेम से संगीत गूंजने लगता है।
अर्पणा पाण्डेय.
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