सबसे बड़ा धर्म.......
Thursday 17 December 2020
Tuesday 15 December 2020
भक्त की परिभाषा......
Sunday 13 December 2020
परिवार और प्रेम .........
एक दिन एक व्यक्ति के घर के बाहर बरामदे में 4 लोग आकर बैठे यह चार लोग थे- प्रेम ,वैभव ,सफलता और नीति घर में रहने वाले दंपत्ति ने बाहर आकर उन्हें प्रणाम किया और उनका परिचय पूछा चारों ने बारी-बारी से अपना परिचय दिया .तब दंपत्ति ने आदर पूर्वक उन्हें भीतर आने के लिए बुलाया इस पर वे चारों बोले हम सबको एक साथ अंदर आने की क्या जरूरत है आप किसी एक को बुला ले दंपत्ति असमंजस में पड़ गया. किसे बुलाएं और किसे छोड़ें उन्होंने आगंतुकों से थोड़ा समय मांगा और आपस में सलाह करने के लिए वापस घर में आ गए .पूरा परिवार अंदर बैठकर सलाह करने लगा स्त्री बोली हमें वैभव को अंदर बुलाना चाहिए उसके आने से बाकियों की कमी भी पूरी हो सकती है तभी उसका पति बोला वैभव सफलता का मोहताज है इसलिए सफलता को ही बुलाओ उसके साथ होने से वैभव अपने आप साथ आ जाएगा इस पर बेटे ने सलाह दी नहीं पिताजी आप सबसे पहले नीति को बुलाएं जहां नीति होती है वही सफलता मिलती है और जहां सफलता मिलती है वहां वैभव अपने आप आता है इसके बाद सभी बहू की राय जानने के लिए उसकी ओर देखने लगे वह धीरे से बोली मेरी मानिए तो आप लोग सबसे पहले प्रेम को बुलाइए बाकी सभी पात्र बाहरी जीवन के मददगार हैं लेकिन घर परिवार में सबसे बड़ा मित्र प्रेम ही होता है प्रेम बना रहे तो अन्य लोगों का साथ किसी ना किसी तरह से हासिल हो ही जाएगा बहू की सलाह पर दंपत्ति ने बाहर आकर प्रेम को बुलाया आश्चर्य हुआ कि जब प्रेम भीतर आया तो उसके पीछे पीछे बाकी तीनों भी आ गए अंदर आकर वे बोले आपने हम तीनों में से किसी एक को बुलाया होता तो हम अकेले ही आते पर प्रेम जहां जाता है वहां हम अवश्य साथ होते हैं ....
.(सुनी-सुनाई कथा )
अर्पणा पांडे 94 55 225 325.
ईर्ष्या .......
Tuesday 8 December 2020
विनमृता का पाठ =====
-- काशी में एक संत रहते थे उनके आश्रम में कई शिष्य अध्ययन करते थे, कुछ शिष्यों की शिक्षा पूरी होने पर संत ने उन्हें बुलाकर कहा "कि अब तुम लोगों को संसार के कठोर नियमों का पालन करते हुए भी विनमृता से समाज की सेवा करनी होगी,एक शिष्य ने कहा गुरुदेव हर समय विनम्रता से काम नहीं चलता है"संत समझ गए कि अभी इसमें अभिमान का अंश मौजूद है ,थोड़ी देर मौन रहने के बाद उन्होंने कहा कि जरा मेरे मुँह के अंदर ध्यान से देखकर बताओ कि अब कितने दाँत शेष रह गए हैं,?बारी -बारी से सभी शिष्यों ने देखा और बोले कि आप के तो सभी दांत टूट गए हैं | संत ने फिर कहा "और जीभ है की नहीं ?शिष्यों ने समझा गुरु जी मजाक कर रहे हैं | बोले उसे देखने कि जरूरत ही नहीं है जीभ अंत तक साथ रहती है | संत ने कहा यह अजीब बात है कि जीभ जन्म से मृत्यु तक साथ रहती है जबकि दाँत बाद में आते है और पहले ही साथ छोड़ देते हैं जबकि उन्हें बाद में जाना चाहिए ऐसा क्यों होता है ?एक शिष्य बोलै यह तो सृस्टि का नियम ही है संत ने कहा नहीं वत्स इसका जबाब इतना सरल नहीं है जितना तुम सोच रहे हो जीभ इसलिए नहीं टूटती कि उसमे लोच है| वह विनम्र होकर अंदर पड़ी रहती है उसमे किसी तरह का अहंकार नहीं है उसमे विनम्रता से सब कुछ सहने की शक्ति है इसलिए वः हमेशा साथ देती है जबकि दन्त कठोर होते हैं उन्हें अपनी कठोरता का अभिमान रहता है वे जानते हैं कि उनके कारण ही मनुष्य की शोभा बढ़ती है यही अंहकार और कठोरता उनके क्षरण का कारण बनती है इसलिए तुम समाज की सेवा जीभ की तरह विनम्र होकर होकर करनी होगी
Monday 7 December 2020
आशा और निराशा....... एक दूधवाले ने दो मेंढक पाल रखे थे दोनों में बड़ी मित्रता थी परंतु दोनों विपरीत स्वभाव के थे एक आशावादी था तो दूसरा निराशावादी था आशावादी मेंढक अपने मित्र को जीवन में आशा का महत्व समझाता परंतु उसका मित्र उसकी बात को हंसकर टाल देता उसका मानना था कि जो होना है वह होकर रहेगा इसलिए अपनी ओर से किसी तरह का कोई प्रयत्न अनुचित है एक रात दोनों खेल रहे थे वह खूब उछल कूद मचा रहे थे इसी क्रम में वे अचानक छाछ के बर्तन में गिर गए रात होने के कारण किसी की भी नजर उन पर नहीं पड़ी बाहर निकलने के लिए वे जितना हाथ पैर मार रहे थे उतना ही गाड़ी गाड़ी छाछ में फंसते जा रहे थे निराशावादी मेंढक बोला हम कितना भी प्रयत्न कर लें परंतु इसमें से बाहर नहीं निकल पाएंगे इसलिए शरीर को ढीला छोड़ देते हैं और बच्चों को शांति से गले लगा लेते हैं . इस पर आशावादी मेंढक बोला हमें आखरी सांस तक प्रयत्न करना चाहिए शायद सचमुच बाहर निकलने में हम कामयाब हो जाएं इतना कहकर वह लगातार हाथ पैर मा रता रहा इस दौरान वह थक कर बेहोश हो गया उसके होश में आने पर सवेरा हो चुका था उसने अपने आप को मक्खन की सतह पर पाया उस मेंढक के लगातार हाथ पैर मारने से छाछ में मक्खन बन गया था उसी से मेंढक की जान बच गई उसने हर तरफ गौर से देखा कि उसका मित्र कहां है परंतु उसका मित्र तो छाछ में नीचे मरा पड़ा था . आशावादी को अपने मित्र की मृत्यु पर काफी दुख हुआ अब उसके जीवन में आशावादी दृष्टि का महत्व और भी बढ़ गया.
-- घटना उस समय की है जब मानव का जन्म नहीं हुआ था,विधाता जब सूनी
पृथ्वी को देखता तो उसे कुछ न कुछ कमी नजर आती और वह उस कमी को पूरी करने
के लिए रात दिन सोच में पड़ा रहता ,आखिर विधाता ने चन्द्रमा की
मुस्कान,गुलाब की सुगंध,अमृत की मिठास ,जल की शीतलता ,अग्नि की तपिश और
पृथ्वी की कठोरता से मिटटी का एक पुतला बनाकर उसमे प्राण फूँक दिए |
मिटटी के पुतले में प्राण का संचार होते ही सब जगह चहचहाट और रौनक हो गई
और घरौंदे महकने लगे देवदूतों ने विधाता की इस अदभुत रचना को देखा तो
आस्चर्य चकित रह गये | और विधाता से बोले यह क्या है ? तो विधाता बोले यह
जीवन की सर्वश्रेस्ठ कृति मानव है,अब इसी से जीवन चलेगा और वक्त आगे
बढ़ेगा | तभी एक देवदूत बोला क्षमा करें प्रभु यह बात मेरी समझ से परे है
कि आपने इतनी मेहनत से एक मिटटी को आकर दे दिया और उसमे प्राण फूंक दिए
मिटटी तो तुच्छ से तुच्छ है ,जड़ से भी जड़ है ,उसकी जगह आप सोने या चांदी
के आकार में यह सब करते तो ज्यादा अच्छा रहता | देवदूत की बात पर विधाता
मुस्कराये और बोले "यही तो जीवन का रहस्य है "| मिटटी के शरीर में मैंने
सारा सुख-सौंदर्य ,सारा वैभव उड़ेल दिया है ,जड़ में आनंद का चैतन्य फूंक
दिया है,इसका जैसे चाहे उपयोग करो ,जो मानव मिटटी के इस शरीर को महत्व
देगा वः मिटटी की जड़ता को भोगेगा जो इससे ऊपर उठेगा उसे आनंद ही आनंद
मिलेगा | लेकिन ये सब मिटटी के घरौंदें की तरह क्षड़िक हैं | इसलिये जीवन
का प्रत्येक छड़ मूल्य वान है तुम मिटटी के अवगुणो को देखते हो उसके
गुणों को नहीं ,मिटटी में ही अंकुर फूटते हैं और मेहनत से फसल लहलहाती
है | सोने और चांदी में कभी अंकुर नहीं फूट सकते, इसलिए मैंने मिटटी के
शरीर को कर्मक्षेत्र बनाया है |
अर्पणा पाण्डेय
१३१० बसंत विहार कानपुर
२०८०२१
9455225325