मधुबनी शैली की चित्रकला दुनियां में अपने तरह की एक ऐसी अनोखी चित्रकला है जिसे सिर्फ एक अंचल विशेष की महिलाएं ही परम्परागत तरीके से बनाती है ,आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े विहार के इस अंचल की महिलाओं ने रंगों और आकृतियों के सहारे मानव जीवन में जिस आवेग का संचार किया, उसने न केवल इनका जीवन सरस और रंगीन बनाया, बल्कि दुनिया के नक्शे में इसकी पहचान भी बनायी l
आम तथा केले के हरे भरे पेड़ों और पानी से भरे पोखरे से घिरे अपने मिट्टी के घरों में गोबर से लिपी जमीन पर पालथी मार कर बैठी ये महिलाएं पिछले तीन हजार बर्षों से हिन्दू देवी देवताओं के भक्ति परk चित्र बनाती आ रही हैं इन चित्रों के विषय धार्मिक ग्रंथों और पुराणों से लिए जाते हैं ,काली माँ तथा आठ भुजाओं वालीं पारम्परिक भेष. भूषण में दुर्गा जी के चित्र किसी भी कला प्रेमी के लिये आकर्षण का विषय हो सकते हैं l
इन चित्रों की प्राचीनता और उत्पत्ति के बारे मे अभी तक कोई निष्कर्ष निकाला नहीं जा सका है, पर इनका आकार प्रकार hadhppa से प्राप्त तथा पंचमार्क के सिक्कों पर बने चित्रों से मिलता जुलता है, मिथिला के कुछ प्राचीन ग्रंथों में मिले इस चित्र कला के वर्णन से निष्कर्ष पर तो पहुंचा ही जा सकता है. कि वह लोक कलाओं की एक अत्यन्त प्राचीन शैली है l मिथिला की यह एक विशेषता रही है कि इसने देश की हिन्दू संस्कृति की विशुध्दता और गरिमा को पूरी तरह से सुरक्षित रक्खा है l यह चित्रकला अपनी मौलिकता एवं पहचान को बनाये रखने में पूरी तरह से सफल रही है l मुगल कांगड़ा राजस्थानी आदि चित्रकला शैलियों का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा l
केवल महिलाओं द्वारा बनाये जाने वाले यह चित्र किन्हीं खास उत्सवों एवं आयोजनों के अवसर पर ही बनाये जाते हैं, इन चित्रों के लिए कोई माडल नहीं होता है ये पूरी तरह से मौलिक होते हैं इनकी तुलना कुछ मायनों में उत्तर प्रदेश के करवाचौथ एवं हरछठ पर दीवारों पर बनाये जाने वाले रेखा चित्रों से की जा सकती है l मधुबनी की कला परम्परागत रूप से माँ बेटी के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है प्रारम्भ में बेटी माँ के साथ बनवाने में मदद करती है, फिर धीरे धीरे उसका स्वरूप उसके दिमाग में अपने आप बन जाता है l विवाह के उपरान्त पति के घर जाने पर वह खूब मन लगाकर उसका अभ्यास करती है और पारंगत हो जाने पर ये कला वह अपनी बेटी को सौंप देती है यह सिलसिला जाने कब से चला आ रहा है l